Musafir Cafe in Lucknow Times

‘फिल्मों की तरह हिंदी की किताबों को करें प्रमोट’


किताब और जिंदगी में फर्क बस लॉजिक भर का होता है। किताब का अंत लॉजिकल होता है और जिंदगी का नहीं। वे इस लाइन को लिखने के साथ इसकी अहमियत को समझते हैं इसलिए कहते हैं कि जिंदगी की मंजिल भटकना है, कहीं पहुंचना नहीं। अपनी जिंदगी में लखनऊ समेत यूपी के कई शहरों को करीब से देखने समझने का उन्हें मौका मिला। वे जिंदगी के 'टर्म एंड कंडिशंस' को समझने के बाद 'मसाला चाय' का लुत्फ लेते हुए 'मुसाफिर कैफे' पहुंच चुके हैं। लखनऊ के महानगर एरिया से निकलकर मुंबई में मार्केटिंग मैनेजर दिव्य प्रकाश दुबे ने हिंदी को नई वाली हिंदी में तब्दील कर उसके लिए मार्केट बनाने का काम किया है। वे हिंदी के ऐसे राइटर हैं, जिनकी किताब ‘मुसाफिर कैफे’ को इंग्लिश के जाने- माने पब्लिशर वेस्टलैंड ने छापा है। हिंदी दिवस पर हमने दिव्य प्रकाश से उनके अब तक के सफर और हिंदी के फ्यूचर के बारे में बातचीत की तो उन्होंने कहा कि प्यार में पड़कर हम जिस भाषा में पहली कविता लिखते हैं, वही हमारी असली भाषा होती है।



रास्ता मिलने के साथ ही बढ़ गई जिम्मेदारी 

मुझे लगता है कि चार साल पहले जब मेरा बतौर राइटर सफर शुरू हुआ, तब पता नहीं था कि लोगों को मेरी कहानियां पसंद आएंगी या नहीं। उस वक्त कोई डायरेक्शन नहीं था , अब डायरेक्शन मिल गया है। अब मुझे यकीन हो गया है कि मैं यही करने के लिए पैदा हुआ हूं। असल में मेरे लिए लिखना ऐसा था जैसे लालटेन लेकर जंगल के अंधेरे में घूमना, जहां सिर्फ अगला कदम नजर आता है। शुरुआत में यह भी पता नहीं था कि मुझे इसी जंगल में घूमना है या नहीं लेकिन अब तय है कि रास्ता इसी जंगल से निकलना है। पहली किताब की तुलना में अब जिम्मेदारी बढ़ गई है क्योंकि हाईस्कूल के बाद कभी हिंदी न पढ़ने वाले इंजीनियर और एमबीए करने वाले अब हिंदी किताबें लिख रहे हैं। 


इंटेलिजेंस नहीं, माहौल है प्रॉब्लम 

हरदोई, शाहजहांपुर जैसे शहरों में रहकर हिंदी मीडियम से पढ़ाई करने के बाद जब मैं लखनऊ कोचिंग करने पहुंचा तो देखा कि सारे टीचर्स इंग्लिश में पढ़ाते हैं। मैं थोड़ा तेज था तो समझ लेता था लेकिन हिंदी मीडियम का वो स्टूडेंट, जो सवाल को हिंदी में समझाने के लिए कहता, टीचर उसे क्लास के बाद अलग से पूछने के लिए कहते। असल में वो स्टूडेंट इंटेलिजेंस के मामले में किसी से पीछे नहीं था लेकिन सारा मामला माहौल का था। असल में रोज क्लास के बाद अलग से सवाल पूछना संभव नहीं हो सकता था इसलिए वह पीछे रह गया। मुझे दूसरी भाषाओं से शिकायत नहीं है। बस ऐतराज उन लोगों से है, जिन्हें हिंदी बोलने में शर्म आती है।


जिंदगी की विश लिस्ट के आगे की कहानी है ‘मुसाफिर कैफे’ 

हिंदी में लिखने का जहां तक सवाल है तो हिंदी मुझे मां ने प्यार से पुचकारकर गोद में सिखाई थी इसलिए हिंदी में जो कुछ भी लिखता हूं, लगता है दिल से लिख रहा हूं। हिंदी की मौज को मैं कभी नहीं छोड़ना चाहता। मैं अपनी कहानियों को ओरिजनल रखना चाहता हूं इसलिए वैसी ही भाषा इस्तेमाल करता हूं, जैसी घर में बोलता हूं। मुसाफिर कैफे तीन कैरेक्टर्स (चंदर, सुधा और पम्मी) की जर्नी की कहानी है। हम सब अपनी लाइफ में एक विश लिस्ट बनाते हैं, जिस पेज पर हम वो विश लिस्ट लिखते हैं, उस पेज पर जो खाली जगह रह जाती है, यह उस खाली जगह की कहानी है कि विश लिस्ट के आगे क्या। धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों के देवता’ से कैरेक्टर्सके नाम लेने के पीछे की वजह सिर्फ यह है कि मैं उन्हें रिस्पेक्ट देना चाहता हूं। जहां तक सवाल ‘मुसाफिर कैफे’ की कहानी से मेरी निजी जिंदगी के ताल्लुक का है तो मेरा मानना है कि किताब की हर कहानी या तो हो चुकी होती है या हो रही होती है या होने वाली होती है। मुसाफिर कैफे लिखने से पहले मैंने जो भी कहानियां लिखी थीं, वो सारी नॉस्टैलजिया थीं। वो सारी कहानियां 90 के दशक की थीं, जिस वक्त मैं लखनऊ और यूपी के अलग- अलग शहरों में जिंदगी को अपने तरीके से महसूस करते हुए समझ रहा था। उन कहानियों में यूपी और उन छोटे शहरों का फ्लेवर था। उनमें वो स्कूल था, जहां मैंने जिंदगी के कई फॉर्म्यूले समझे थे। ‘मुसाफिर कैफे’ कॉलेज के बाद नौकरी के लिए शहर बदलने के बाद की कहानी है। 


फिल्म की शक्ल ले सकती है मुसाफिर कैफे 

फिलहाल, मैं कुछ दिन ब्रेक लेकर कहीं गायब हो जाना चाहता हूं लेकिन यह सच है कि मुसाफिर कैफे को फिल्म की शक्ल देने को लेकर बातचीत चल रही है। अभी मैं स्क्रिप्ट फाइनल कर रहा हूं। नई वाली हिंदी की जहां तक बात है तो हिंदी अखबार पढ़ने वालों से मेरी अपील है कि उन्हें हिंदी किताब जरूर खरीदनी चाहिए ताकि घर में हिंदी पढ़ने की परंपरा बनी रहे और भविष्य में ऐसा न हो कि बच्चे हिस्ट्री की क्लास में हिंदी पढ़े।


हिंदी किताबें करें गिफ्ट

मेरा मानना है कि किताबें हमेशा पावरफुल रहेंगी क्योंकि वो भीड़ के बजाय एक-एक व्यक्ति को अलग-अलग जगहों पर प्रभावित कर रही होती हैं। हिंदी दिवस पर किसी सेमिनार में जाकर लेक्चर देने के बजाय हमें हिंदी की किताबें पढ़ने के साथ दूसरों को गिफ्ट देने की कोशिश करनी चाहिए। मैं हर बार हिंदी दिवस पर 10 हजार तक की किताबें दोस्तों को गिफ्ट करता हूं। इसमें मेरी ही नहीं बल्कि दूसरे लेखकों की किताबें भी शामिल होती हैं। मेरा मानना है कि हिंदी फिल्मों को हम जितनी गंभीरता से लेते हैं। वैसे ही हमें हिंदी किताबों को भी प्रमोट करना चाहिए, उनके बारे में बात करनी चाहिए। 

यह इंटरव्यू 15 सितंबर 2016 को लखनऊ टाइम्स, नवभारत टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित हुआ था !


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The following Interview of Divya Prakash Dubey, who is the author of hindi novel Musafir Cafe was published in Lucknow Times which is the supplement copy of the Daily Newspaper Navbharat Times Lucknow.